मुंबई, 09 जुलाई, (न्यूज़ हेल्पलाइन)। दिल्ली हाईकोर्ट ने बुधवार को भारतीय न्याय संहिता (BNS) की कुछ धाराओं को रद्द करने की मांग वाली जनहित याचिका को खारिज कर दिया। अदालत ने स्पष्ट किया कि वह संसद को किसी कानून को रद्द करने या उसमें बदलाव करने का आदेश नहीं दे सकती, क्योंकि यह कार्य केवल विधायिका का है। मुख्य न्यायाधीश डी.के. उपाध्याय और न्यायमूर्ति अनीश दयाल की पीठ ने सुनवाई करते हुए कहा कि कानून को समाप्त करने या उसमें संशोधन करने का अधिकार केवल संसद को है और न्यायपालिका इस प्रक्रिया में हस्तक्षेप नहीं कर सकती। यह याचिका उपेन्द्रनाथ दलई द्वारा दायर की गई थी, जिसमें BNS की धाराएं 147 से 158 और 189 से 197 को चुनौती दी गई थी। याचिकाकर्ता का तर्क था कि ये धाराएं ब्रिटिश शासनकाल की देन हैं और आज भी लोगों को दबाने के लिए इस्तेमाल की जाती हैं। उन्होंने खासकर धारा 189 का हवाला दिया जो ‘गैरकानूनी जमावड़े’ से जुड़ी है, और आरोप लगाया कि इसका इस्तेमाल विरोध की आवाजों को दबाने के लिए किया जाता है। हालांकि अदालत ने इस दलील को खारिज करते हुए कहा कि इन धाराओं को हटाने या बदलने का निर्णय संसद ही ले सकती है। अदालत ने कहा कि वह कानून बनाने या खत्म करने का कार्य नहीं कर सकती, क्योंकि यह न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र से बाहर है।
BNS की जिन धाराओं को चुनौती दी गई थी, वे राज्य के खिलाफ अपराधों और लोक व्यवस्था भंग करने से जुड़े मामलों को कवर करती हैं। धारा 147 से 158 देश की संप्रभुता, एकता और अखंडता के खिलाफ युद्ध छेड़ने जैसे अपराधों से संबंधित हैं, जबकि धारा 189 से 197 अवैध सभा और दंगे जैसे अपराधों से जुड़ी हैं। 1 जुलाई 2024 को भारत में तीन नए आपराधिक कानून लागू किए गए थे—भारतीय न्याय संहिता, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम। ये कानून क्रमशः IPC 1860, CrPC 1973 और एविडेंस एक्ट 1872 की जगह लाए गए थे। सरकार का दावा है कि इन नए कानूनों से न्याय प्रणाली में गति आएगी, और अब दंड के बजाय न्याय की भावना को प्राथमिकता दी जाएगी। इन कानूनों को लेकर राजनीतिक प्रतिक्रिया भी सामने आई थी। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर इन कानूनों के क्रियान्वयन को रोकने की मांग की थी। ममता ने कांग्रेस नेता पी. चिदंबरम से भी मुलाकात की थी, जो इन कानूनों की समीक्षा के लिए बनाई गई संसद की स्थायी समिति के सदस्य रह चुके हैं। उन्होंने कहा था कि यदि इन कानूनों की पुनः समीक्षा की जाए और इन्हें लागू न किया जाए, तो इससे देश की न्याय व्यवस्था में आम जनता का भरोसा बढ़ेगा और कानून का शासन स्थापित होगा।